पुलिस नौकरी नहीं ज़िम्मेदारी

अप्रैल में ही मई वाले लू के थपेड़े चेहरे के साथ-साथ पूरे शरीर को जला रहे। जैसे-जैसे दिन चढ़ता है लोगों की भीड़ ग़ायब होना शुरू हो जाती है। दोपहर में लोग ना तो सड़क पर दिखते हैं ना गलियों में। सब अपने-अपने घरौंदों में छिप जाते हैं। जो लोग दुकान-ठेला करते हैं वो भी अपने लिए प्रचण्ड लू से बचने के लिए कुछ ना कुछ जुगाड़ कर लेते हैं क्यूँकि उनका स्थान स्थाई है।
ऐसे में क्या अपने कभी सोचा है उन पुलिस के जवानों के बारे में जो इस तपती दुपहरी में समाज की मतलब हमारी-आपकी रक्षा करते हुए लू के थपेड़े झेलते हुए बीच सड़क बिना किसी छाया के चौकन्ने मिलते हैं?
कैसे पसीने से तरबतर, प्यास से परेशान अपने कर्तव्य में लगे रहते हैं।
क्या कभी किसी ने एक ग्लास पानी का भी पूछा होगा?
वो भी तो समाज का हिस्सा हैं। उनका भी अपना परिवार है। लेकिन वो हम सब के परिवार की सुरक्षा के लिए तपती दुपहरी में सड़कों-गलियों में तने रहते हैं। आपका एक फ़ोन, उनकी जिम्मेदारियाँ बढ़ा देता है। ज़रा देर हुई तो फिर उच्च अधिकारियों तक शिकायत कर दी जाती है। लेकिन एक बार इस धूप में आप भी कुछ देर टहल के देखिए शायद आपको अहसास हो जाए, *”पुलिस नौकरी नहीं ज़िम्मेदारी है।”*
कभी मौक़ा मिले तो किसी जवान की मदद ज़रूर करना ताकि वो और भी तत्पर्ता से समाज के सेवा कर सके।
रिपोर्ट-चन्द्र किरण मिश्र, रीवा